नहीं जाने कल फिर कौन कहाँ !
सपनों में मन की कहती हो,
पर, सामने तुम चुप रहती हो,
मैं सपने को सच मानुँ,
या फिर मानुँ तेरे मौन को हाँ !
हम कब से बैठे दुविधा में,
कब आओगे तुम चल करके,
ये राहें कर लो एक प्रिये,
नहीं जाने कल फिर कौन कहाँ !
हर साँस में तेरी सुगंध बसी,
तुम बिन कुछ भी न लगे हसीं,
ग़र सपनों में आ सकती हो,
तो जीवन में तुम क्यों हो खफा !
8 Comments:
अनिल जी
अच्छी रचना। आप सपनों को ही सच मान लीजिए।
धन्यवाद शोभा जी । परन्तु यदि सपने ही सच हों तो इन्सान को सभी कुछ मिल जाये ।
उम्दा रचना:
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा भी शुरु करवायें तो मुझ पर और अनेकों पर आपका अहसान कहलायेगा.
इन्तजार करता हूँ कि कौन सा शुरु करवाया. उसे एग्रीगेटर पर लाना मेरी जिम्मेदारी मान लें यदि वह सामाजिक एवं एग्रीगेटर के मापदण्ड पर खरा उतरता है.
यह वाली टिप्पणी भी एक अभियान है. इस टिप्पणी को आगे बढ़ा कर इस अभियान में शामिल हों. शुभकामनाऐं.
सुंदर कविता
मैं सपने को सच मानुँ,
या फिर मानुँ तेरे मौन को हाँ !
तो क्या सपनो मे "ना " कहती है जो सामने आने पर मौन को "हाँ " मानना पड रहा है अगर ऐसा है तो जो शोभा जी ने कहा है सही कहा है।
वैसे बहुत ही सुन्दर कविता । सप्नों से लेकर दिन के उजाले तक का सफर करवाती कविता। बस जरा ना और हा मे उलझन है ।
उड़नजी,
आपको मेरी कविताएँ पसन्द आती हैं, अच्छा लगता है । आपकी प्रतिक्रिया के लिये आभारी हूँ ।
मेरे मुख्यत: दो ब्लाग हैँ । हाल ही में मैंने अपनी कहानियों का ब्लाग(http://chunindikahaniyan.blogspot.com) आशा है आप इसे भी पसन्द करेंगें ।
कृष्णलालजी,
आपके उदगार पढ़ कर बरबस ही मुस्का उठा । बड़े भाईसाहब, ग़र सपनों में हाँ करती है, तभी तो मौन को हाँ मानने की बात है । नहीं तो न ही न है । है न!!
रक्षँदाजी,
हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया ।
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