गज़ल!
ग़म मिलते रहे मुझे बेइन्तिहा, मैं समझता रहा उन्हे इम्तिहां,
कोई वादा किसी ने किया तो न था, पाले रहे हम यूँ ही गुमां ।
तोड़ना चाहा तारे बढ़ा के ये हाथ, आसमाँ ऊँचा लेकिन होता गया,
दूर से दिखते हैं मिलते हुए, जमीं आसमाँ लेकिन हैं मिलते कहाँ ।
हमने देखा हैं रंगों को खिलते हुए, बूंदे बारिश की फैली फलक पे हों जब,
तिलिस्म सपने सारे आँखों के हैं, बाद बारिश के दिखते हैं रंग कहाँ ।
कोई तकदीर को कैसे साथी कहे, वो तो अपनी ही मर्जी से चलती चले,
कौन जाने दग़ा देगी किस मोड़ पर, उसके हाथों में खेला है सारा जहाँ ।
वक्त किसी के लिये तो ठहरता नहीं, मोड़ना कर्म से कभी मुहँ को नहीं,
तू जहाँ से, तुझसे जहाँ है बना, तू नहीं तो जहाँ भी कहाँ है रहा ।
2 Comments:
कोई तकदीर को कैसे साथी कहे, वो तो अपनी ही मर्जी से चलती चले,
कौन जाने दग़ा देगी किस मोड़ पर, उसके हाथों में खेला है सारा जहाँ ।
ye bahut sahi baat hai,bahut sundar
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