हमने देखा उसे भटकते हुए !
चाँद सोया नहीं है सदियों से,
जाने क्या ढ़ूँढ़ता है सदियों से ।
हमने देखा उसे भटकते हुए,
छत पे,आँगन में,सूनी गलियों में ।
रास तारे भी नहीं आयें इसे,
जाने क्या देखा इसकी अँखियों ने ।
रफ्ता-रफ्ता ये रोज़ घटता रहा,
इसको देखा है मरते कईयों ने ।
चांद का दर्द नहीं समझा कोई,
कही अपनी ही जग में कवियों ने ।
फिर भी देखो ये चाँद खिलता रहा,
दिल की कहता रहा शैदाईयों से ।
5 Comments:
wah behad dilkash sundar,chand ka dard bahut kam log samjhte hai.
गज़ल पसन्द आने के लिये बहुत-बहुत शुक्रिया, महक जी !
डॉ. अनिल,
कई शेर बेहतरीन हैं..
रफ्ता-रफ्ता ये रोज़ घटता रहा,
इसको देखा है मरते कईयों ने ।
बधाई स्वीकारें..
*** राजीव रंजन प्रसाद
www.rajeevnhpc.blogspot.com
गज़ल के शेर पसन्द आने का बहुत-बहुत शुक्रिया राजीव जी । ऐसे ही कोशिश करता रहुँगा ।
चांद का दर्द खूब बयाँ किया है, बधाई ।
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