अपने-पराये !
जो अपने न थे, उन्हे अपना बनाने की कोशिश में,
अपनों से दूर हो गये हम ।
इस भीड़ भरी दुनिया में, अकेले रहने को,
मज़बूर हो गये हम ।
कहीं तो किसी बात का किसी को एहसास होता,
जिसका कोई नहीं, कोई तो उसके पास होता,
हर तरफ मची धोखों की धूम में,
किसी पर तो हमें विश्वास होता,
यूं ही चलते-चलते म्रगत्रष्णा में,
खो गये हम ।
बनाते रहे तमाशा अपनी वफाई का,
बाजार पर गर्म है अब बेवफाई का,
बस काम से ही मतलब सबको ज़माने में,
डर नहीं किसी को तेरी खुदाई का,
अब तो अपनों की दुनिया में ही,
बेगाने हो गये हम ।
7 Comments:
सबसे पहले आपको बधाई आपका चिट्ठा भी मैने मेरे चिट्ठे के साथ राजस्थान पत्रिका में देखा था...
बहुत सुन्दर रचना है डॉक्टर साहब...
वाह बहुत खूब.
बनाते रहे तमाशा अपनी वफाई का,
बाजार पर गर्म है अब बेवफाई का,
बस काम से ही मतलब सबको ज़माने में,
डर नहीं किसी को तेरी खुदाई का,
अब तो अपनों की दुनिया में ही,
बेगाने हो गये हम ।
डा0 साहब आप बहुत अच्छी गजले लिखतें है किताब अगर छपवाई हो तो बताएं.और अगर भेज सके तो और अच्छा होगा.
वाह बहुत खूब.
बनाते रहे तमाशा अपनी वफाई का,
बाजार पर गर्म है अब बेवफाई का,
बस काम से ही मतलब सबको ज़माने में,
डर नहीं किसी को तेरी खुदाई का,
अब तो अपनों की दुनिया में ही,
बेगाने हो गये हम ।
डा0 साहब आप बहुत अच्छी गजले लिखतें है किताब अगर छपवाई हो तो बताएं.और अगर भेज सके तो और अच्छा होगा.
सुन्दर अहसास. आनंदम
http://kakesh.com
बहुत ही सुन्दर पक्तिंयाँ, आपकी पूरी कविता जानदार है किन्तु अन्तिम विशेष अच्छी लगी।
प्रोत्साहन के लिये सभी को दिल से धन्यवाद । आप सभी को मेरे दिल से निकली पक्तियाँ पसंद आई उसके लिये मन विशेष आनदित हुआ ।
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