"कोमल सी हो !"
कोमल सी हो तुम मधुप्रिये
मेरा पथ काँटों से भरा
साथ मेरा दोगी तुम कैसे
कभी है नभ से मिली धरा
पग-पग चलना हुआ है दूभर
व्यथित रहे बोझिल मन दिन भर
तपती धूप, है जलते पाँव
नहीं पता कहाँ मिलेगा ठाँव
यूँ तो तुम लगती हो मुझको
जीवन में शीतलमयी सुरा
पर सोचो तुम आज तलक
कभी है नभ से मिली धरा
दूर क्षितिज तक नजर दौडाएँ
स्वप्न इंद्रधनुषी नजर में आएँ
पर उनको क्या पकड़ सकें हम
व्यर्थ वो हमको हैं तड़पाएँ
मैं हूं सपना, तुम एक हकीकत
साथ है अपना जरा-जरा
आज तलक दुनिया में बोलो
कभी है नभ से मिली धरा
1 Comments:
सुन्दर रचना है।बधाई।
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