भीनी-भीनी धूप !
लज़ीले चेहरे को यूँ छुपाया काली ज़ुल्फों ने,
सुबह की लालिमा को जैसे ढाँपे कोहरा ठंड में !
सिमटती जा रही हो शर्म से खुद ही में तुम ऐसे,
कली जैसे खिले आधी बला के सर्द मौसम में !
पता है, क्यों गुलाबी होंठ कुम्हलाए पड़े हैं यूँ,
है चूमा बार-बार इनको, हवा मस्ताई जालिम ने !
सूनापन ये आँखों का तुम्हारी खा रहा चुगली,
चुरा के ले गया है मन को कोई प्यारे आलम में !
उठा के भारी पलकों को, झटक के काली ज़ुल्फों को,
खिलाओ भीनी-भीनी धूप मेरे मन के आँगन में !
[ये कविता दिल्ली प्रेस की पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है ।]
3 Comments:
सिमटती जा रही हो शर्म से खुद ही में तुम ऐसे,
कली जैसे खिले आधी बला के सर्द मौसम में !
सुभान अल्लाह अनिल भाई...क्या बात है...बहुत खूब...वाह..
नीरज
bahut badhiya sir ji...............
उठा के भारी पलकों को, झटक के काली ज़ुल्फों को,
खिलाओ भीनी-भीनी धूप मेरे मन के आँगन में !
--बेहतरीन बहती हुई रचना!! वाह!!
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