"संभल न पाना आँचल का…"
बिगड़ो न मस्त हवाओं पर, नहीं इनकी शैतानी है,
संभल न पाना आँचल का, यौवन कि निशानी है ।
छुटे मुक्त हँसी बचपन की, और आँखें शर्माती हों,
तो समझो, हर मौसम पर भरपूर जवानी है ।
पर, बोल गया चुपके से क्या कानों में बात कोई?
जब सोलह पूरे हो जायें, नहीं आँख मिलानी है ।
संकोच में यूँ ही गवांओगी, अपने जीवन को तुम,
फिर तरसोगी इस पल भर को, ये बात पुरानी है ।
आओ बैठो, कुछ कह लूँ मैं, कुछ कह लो तुम भी अब,
ढ़लते सूरज की बेला है, और शाम सुहानी है ।
[ये कविता दिल्ली प्रेस की पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है]
4 Comments:
वाह चड्डा जी तुस्सी छा गए ....
Sundar rachna....
aabhaar.
संकोच में यूँ ही गवांओगी, अपने जीवन को तुम,
फिर तरसोगी इस पल भर को, ये बात पुरानी है ।
आओ बैठो, कुछ कह लूँ मैं, कुछ कह लो तुम भी अब,
ढ़लते सूरज की बेला है, और शाम सुहानी है ।
सुन्दर लगीं ये पंक्तियाँ !!!
अच्छी लगी ... सुंदर रचना है।
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