"………शरमाया करती हो!"
झुके नयनों के कोरों से तुम झाँका करती हो,
मैं जानता हूँ तुम मुझसे शर्माया करती हो !
मैं पास आऊँ, फेरती हो मुँह क्यों तुम अपना,
ग़र बाद मेरे सखियों से ढुँढवाया करती हो !
चुप रह जाती हो, बोलना मैं चाहूँ जब तुमसे,
पर तन्हाई में गीत मेरे गाया करती हो !
रखना न था ग़र वास्ता मुझसे कोई तुमने,
तो चुपके-चुपके सपनों में क्यों आया करती हो?
जब चाहती हो प्रियतम को अपने मन ही मन में,
क्यों बेवजह ही मुझको तुम तड़पाया करती हो !
[ये कविता दिल्ली प्रेस की पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है ।]
6 Comments:
सुन्दर कविता ...
मैं पास आऊँ, फेरती हो मुँह क्यों तुम अपना,
ग़र बाद मेरे सखियों से ढुँढवाया करती हो !
वाह बहुत खूबसूरत शेर कहा है आपने...पूरी ग़ज़ल ही उम्दा है...बधाई...
नीरज
बहुत अच्छा लिखा है।
बहुत अच्छा लिखा है।
वाह!! क्या बात है!!
बहुत खूब । अच्छी गजल
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