बिंदिया माथे की मुझे बना लो न !
करवटें ले रहा ये मौसम है,
तुम भी पलकों को कुछ उठा लो न !
कैद मैं क्यों रहे जवानी अब ?
खुद को कलियों सा तुम खिला लो न !
रात की बेबसी पे रहम करो,
गेसु मुख से जरा हटा लो न !
बहुत खलती है सूनी पेशानी,
बिंदिया माथे की मुझे बना लो न !
निगाहें बेशुमार तकती हैं,
पहरे पर मुझको तुम बिठा लो न !
[ये कविता दिल्ली प्रेस की पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है]
1 Comments:
सुन्दर लिखा है।
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