गज़ल!
क्या फर्क पड़ता है किसी को, आँसू बहाने से,
सबको अपनी ही पड़ी है मतलबी जमाने में ।
अब तो हद कर दी है लोगों ने बेशर्मी की,
दोस्त बनके करते नहीं गुरेज़ छुरी चलाने में ।
सामान सौ बरस का और पल की खबर नहीं,
मशगूल सभी किसी की मौत का सामान जुटाने में ।
दिल पत्थर के और पत्थरों की पूजा करे कोई,
इक उम्र बीत गई है उस पत्थर को मनाने में ।
मिलते हैं सभी यहाँ नकली मुखौटे ओढ़ के,
मुश्किल हुआ है बहुत सही शख्स पहचानने में ।
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