ऐसा तो कभी हुआ न था!
ऐसा तो कभी हुआ न था कि रातों की नींद उड़ गई हो हमारी,
ज़रूर वो हमारी याद में करवटें बदलती होगी !
ऐसा तो कभी हुआ न था कि बहारें हमसे गुफत्गु न करें,
ज़रूर बहारें तेरी ज़ुल्फों के साये में मचलती होंगी!
ऐसा तो कभी हुआ न था कि बादल यूँही बेसाख्ता बरसने लगें,
ज़रूर घटाएँ तुझ बिन आँसू बहाती होंगी !
ऐसा तो कभी हुआ न था कि सूरज अपनी गर्मी भूल जाता हो,
ज़रूर तुम अपना चेहरा उसको दिखलाती होगी!
ऐसा तो कभी हुआ न था कि वक्त भी चलते-चलते थम जाये,
ज़रूर देखली उसने तेरी चाल मदमाती होगी!
2 Comments:
बहुत अच्छी रचना, धन्यवाद
'आरंभ' छत्तीसगढ का स्पंदन
बढ़िया है, अनिल जी.
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home