तुम क्या हो!
क्यों उपमा दूँ चँदा की तुम्हे,
चँदा तो है सारे जग का !
कैसे कह दूँ गुल भी तुमको,
एहसास हो काँटों के संग का!
उगते सूरज की लाली से भी,
कैसे तुलना तेरी मैं करूँ?
तुम खुद में ही इक सूरज हो,
ज्योतिपुंज हो मेरे मन का!
चंचल हिरणी की चंचलता,
भी जैसे तेरी सानी नहीं,
तुम कोमलता से कोमल हो,
कैसे वर्णन हो नख-शिख का!
कुछ भी कह ले कोई तुमको,
कैसी ही कोई उपमा दे,
सबसे पहले तुम मेरी हो,
तुम प्राण हो मेरे जीवन का!
2 Comments:
अच्छी कविता है.
सुन्दर कवित्त!!
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