गज़ल!
तुम बिन मेरी कविता अधूरी ही रह गई,
दिलों में जो दूरी थी, दूरी ही रह गई ।
चाहा था तस्वीर तुम्हारी शब्दों में उतार लूँ,
तेरे बिन शब्दों की भी मजबूरी ही रह गई ।
तुम आओ तो बहारें भी आ जायें चुपके से,
तुम बिन शाम भी बिन सिंदूरी ही रह गई ।
थक गये इल्तज़ा कर कर के उनसे प्यार की,
जाने क्यों मेरी सदा बिन मंजूरी ही रह गई ।
दुश्मनों को भी दोस्तों का दर्जा दे बैठे थे हम,
तभी तो हर बात मेरी अधूरी ही रह गई ।
3 Comments:
तुम आओ तो बहारें भी आ जायें चुपके से,
तुम बिन शाम भी बिन सिंदूरी ही रह गई ।
bahut badhiya
अच्छी तरंग है.
महक जी एवं उड़न तश्तरी जी,
गज़ल आपको अच्छी लगी, बहुत बहुत शुक्रिया ।
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home