गज़ल!
हमें तो उनके ग़म में ही जीने का आने लगा मज़ा,
या ख़ुदा, इसे तेरी नेमत कहुँ या मानुँ इसको मैं सज़ा ।
उम्मीद के दामन को पकड़े रास्ता हैं देखते,
कौन जाने फिर कभी गुलशन में आ जाये फिज़ा।
हर हाल में मुस्करा के जीने की चाहत है अब,
क्या पता खुशियाँ भी साथ में ले आयें कज़ा ।
धूल, काँटे, पत्थरों के साथ की आदत तो थी,
ऐसे में कोई बताये क्या करेगी ये ख़िजा ।
चोट खा के भी लगाने मरहम हम थे चल दिये,
वो ही ज़ख्म दे दे तो होगी इसमें तेरी ही रज़ा ।
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