गज़ल!
हमें तो ख़ारों में रहने की आदत सी पड़ चुकी है,
एक नश्तर तुम भी चुभा जाओगे तो क्या होगा!
ये बहारें भी तो तड़पाती हैं हमें जी भर के,
खिज़ां भी अगर आ जायेगी तो क्या होगा!
तुम्हारी सोंधी सी खुशबु बसी रहती है ज़हन में,
तुम अगर नहीं भी आओगे तो क्या होगा!
बसी रहती हो आठों पहर ख्यालों में मेरे,
नींद अगर नहीं भी आयेगी तो क्या होगा!
हम तो हमेशा के लिये तुम्हारे हैं हुए,
तुम अगर नहीं भी अपनाओगे तो क्या होगा!
3 Comments:
कृपया शब्दार्थ करें -
ख़ारों
खिज़ां
ख़ार - काँटे
ख़िज़ा - पतझड़
शुक्रिया डॉक्टर साहब।
आलोक
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